मानसिक विकारों के कारणभूत ग्रहयोग

(A Scholarly Vedic Astrology Analysis on Mental Aberration)

Arpit pandey

6/21/20251 min read

मानसिक विकारों के कारणभूत ग्रहयोग :

एक शास्त्रीय विवेचन
(Vedic Astrology Insights on Mental Aberration)

भारतीय वेदांग-ज्योतिष के अनुसार, प्रत्येक मानसिक अवस्था — चाहे वह सामान्य हो या विक्षिप्त — उसके पीछे ग्रहों की अदृश्य भूमिका होती है।
जो मनोवैज्ञानिक लक्षण आधुनिक चिकित्सा शास्त्र Psychiatric impairment के अंतर्गत रखता है — जैसे Severe depression, hallucination, anxiety disorder — उसका आधार केवल 'न्यूरोकेमिकल असंतुलन' नहीं है, अपितु ग्रहजन्य प्रभाव भी अत्यंत गहरा है।

मानसिक विकृति (Mental Aberration) का तात्पर्य है — सामान्य विचारशीलता से रोगग्रस्त विचलन, जहाँ व्यक्ति की चित्तवृत्तियाँ सामान्य सम्यक् चिंतन मार्ग से हट जाती हैं और भ्रम, मोह, आत्मग्लानि, भ्रमपूर्ण इन्द्रिय अनुभव (hallucinations) अथवा गहन अवसाद उत्पन्न होता है।

वेदांग-ज्योतिष के प्रमुख विद्वान प्रोफेसर पी.एस. शास्त्री के अनुसार:
"3H/6H/9H/12H, चन्द्रमा, बुध, गुरु, तथा ग्रहों की अवस्थिति एवं पीड़ा — ये सब मिलकर मानसिक विकृति का कारण बनते हैं।"

इसी के संदर्भ में यहाँ हम विस्तारपूर्वक इन ग्रहयोगों का विवेचन करेंगे।

सर्वप्रथम, यह समझना आवश्यक है कि कषीण ग्रह (Kṣīṇa Graha) कौन कहलाते हैं।
जिस ग्रह की स्थिति शत्रु राशि, नीच राशि अथवा नीचांश में हो — वह कषीण होता है।
कषीण चन्द्रमा तब कहा जाता है जब उसका पक्षबल (Pakṣabala) अत्यंत न्यून हो।

अब यदि ऐसे निर्बल या कषीण ग्रह दुष्ट भावों (Dusthānas) — अर्थात षष्ठ (6H), अष्टम (8H), द्वादश (12H) — में हों तथा क्रूर ग्रहों (शनि, मंगल, राहु, केतु) से युक्त या दृष्ट हों, तो यह मानसिक रोगों का कारण बनता है।

भावगत दृष्टि से —
तृतीय भाव (3H) — निम्न मन (Lower Mind)
षष्ठ भाव (6H) — अवचेतन मन (Subconscious Mind)
नवम भाव (9H) — उच्च मानसिक सत्ता (Higher Mind)
द्वादश भाव (12H) — अज्ञात / गुप्त चित्त (Unconscious Mind) का प्रतिनिधि है।

इन भावों की जब गंभीर पीड़ा होती है, तो साधारण चेतना विघटित हो जाती है — और मनुष्य अनेक प्रकार के मानसिक रोगों से ग्रस्त होता है।

महत्वपूर्ण ग्रहयोगों की विवेचना:

जब चन्द्रमा (मन का अधिपति) और बुध (बौद्धिक प्रक्रिया का प्रतिनिधि) निर्बल होकर दुष्ट भावों में हों — विशेषकर यदि दोनों में कषीणता हो — तो मानसिक विकृति के बीज अंकुरित होते हैं। व्यक्ति के मन में निर्णयशक्ति का ह्रास, तर्कहीनता, भ्रमजन्य विचार पनपने लगते हैं। यदि यह स्थिति दीर्घकालिक हो तो व्यक्ति schizophrenia अथवा अन्य गंभीर मानसिक रोगों का शिकार हो सकता है।

यदि लग्न में कषीण चन्द्रमा तथा निर्बल बुध हों — और उन पर शनि, राहु, केतु अथवा मंगल की दृष्टि हो — तो व्यक्ति का मानसिक संतुलन डगमगाने लगता है। विशेषकर यदि त्रिकोण भाव (५H एवं ९H) भी पीड़ित हों तो यह स्थिति और विकट होती है। ऐसे जातक प्रायः अत्यधिक संवेदनशील, आत्ममुग्ध, आत्मविमुख एवं निर्बल निर्णयशक्ति के होते हैं।

विशेष ध्यान रहे कि लग्न में चन्द्रमा केवल तीन राशियों (मेष, वृषभ, कर्क) में ही शुभ प्रभाव देता है। शेष राशियों में इसका प्रभाव मन को विक्षिप्त करने वाला हो सकता है।

जब बुध षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव में हो और शनि, मंगल, राहु-केतु से पीड़ित हो — तब जातक की कल्पनाशक्ति असामान्य हो जाती है। Hallucinations — जैसे कि झूठी ध्वनि सुनाई देना, कोई अदृश्य आकृति देखना, अथवा भ्रमजन्य गंध या स्पर्श का अनुभव — यह सब उत्पन्न हो सकता है।

यदि कषीण चन्द्रमा अष्टम भाव में (विशेषतः वृश्चिक राशि में) स्थित हो और शनि या राहु की दृष्टि हो — तो यह सबसे भयावह योगों में से एक होता है। Severe Depression, आत्मविमुखता, आत्मघात की प्रवृत्तियाँ तक जन्म ले सकती हैं।

जब सूर्य (Vitality) और गुरु (Higher Intellect) लग्न में स्थित हों — यह सामान्यतः शुभ होता है। परंतु यदि सप्तम में शनि अथवा मंगल हों, तो Unmada Yoga निर्मित होता है — अर्थात व्यक्ति मानसिक असंतुलन की चरम सीमा तक पहुँच सकता है।

यदि शनि लग्न में तथा मंगल सप्तम अथवा त्रिकोण भाव में हो — तो जातक अत्यधिक चिंतित, अधीर तथा निर्णयहीन हो जाता है।

चन्द्र-मंगल युति यदि पंचम या अष्टम भाव में हो तथा उस पर राहु/शनि की दृष्टि हो — तो अत्यधिक चिंता, घबराहट, panic attacks, bipolar tendencies एवं रक्तचाप विकार उत्पन्न होते हैं।

गजकेसरी योग (चन्द्र-गुरु युति), जो सामान्यतः शुभ माना जाता है, यदि राहु, केतु, शनि या सूर्य से पीड़ित हो — तो यह Depression, आत्मग्लानि तथा मानसिक जड़ता उत्पन्न कर सकता है।

यदि शनि-मंगल युति चतुर्थ भाव में हो — चूंकि यह भाव कर्क राशि का स्वाभाविक क्षेत्र है — तो जातक में childhood trauma, emotional isolation तथा विकृत भावनात्मक प्रतिक्रिया की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है।

राहु का प्रभाव — विशेषतः मानसिक विकारों को उग्र व uncontrollable बना देता है। राहु के प्रभाव से व्यक्तित्व में असामान्यता, उन्माद तथा मिथ्या आकांक्षाएं जन्म लेती हैं।
केतु के प्रभाव में — जातक भीतर से withdrawn, isolated तथा समाज से पलायन की मानसिकता रखता है।

सार:

जब चन्द्रमा, बुध, गुरु निर्बल होकर दुष्ट भावों में हों, सूर्य अपकर्ष में हो, त्रिकोण और लग्न दूषित हो — और साथ ही शनि-मंगल-राहु-केतु का अत्यधिक प्रभाव कुंडली में विद्यमान हो — तो मानसिक विकृति की प्रबल संभावना बनती है। यह साधारण चिंता अथवा depression न होकर — उन्नत रूप में पागलपन (mania), भ्रम (delusion), आत्मघात (suicidal tendency), hallucinations तक जा सकती है।

वास्तविकता यह है — कि वेदांग-ज्योतिष केवल भूत-भविष्य की कथावाचक विद्या नहीं, अपितु मानव मन के अदृश्य क्षेत्रों को उद्घाटित करने वाला दिव्य विज्ञान है।
यदि कुंडली के इन योगों को समय पर पहचाना जाए — और सही उपाय (शांति-पाठ, ध्यान-साधना, रत्न, चिकित्सा) अपनाए जाएँ — तो मानसिक विकारों को न केवल नियंत्रित किया जा सकता है, बल्कि व्यक्ति मानसिक संतुलन व आत्म-बल पुनः प्राप्त कर सकता है।

इसमें संदेह नहीं कि "मानस चन्द्रमा का क्षेत्र है और विचार-प्रक्रिया बुध का। यदि इनकी गति व स्थिति पीड़ित हो जाए, तो समस्त जीवन-चक्र प्रभावित हो जाता है।"